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सिंधु घाटी सभ्यता (Indus Valley Civilization) – इतिहास, विशेषताएँ और स्थल

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 सिंधु घाटी सभ्यता

परिचय

सिंधु घाटी सभ्यता, जिसे सामान्यतः हड़प्पा संस्कृति भी कहा जाता है, भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है। यह सभ्यता लगभग तीसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व में भारत और पाकिस्तान के उत्तर–पश्चिमी भाग में विकसित हुई। यह उस समय का युग था जब मानव समाज ने केवल कृषि और पशुपालन तक ही सीमित जीवन न जीकर, योजनाबद्ध नगरों और संगठित समाज की ओर कदम बढ़ाया। इसी कारण इसे भारत में शहरीकरण का प्रथम चरण माना जाता है।

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इसका प्रारंभिक स्वरूप लगभग 7000 ईसा पूर्व से देखने को मिलता है। उस समय मेहरगढ़ (बलूचिस्तान, पाकिस्तान) क्षेत्र में नवपाषाणकालीन बस्तियाँ अस्तित्व में आईं। यहाँ लोगों ने सबसे पहले खेती, पशुपालन और स्थायी आवास की ओर कदम बढ़ाया। धीरे–धीरे इसी क्षेत्र से सभ्यता की नींव पड़ी और कालांतर में यह संस्कृति एक सुदृढ़ और संगठित रूप में सामने आई।

मुख्य स्रोतNCERT BOOK

सिंधु घाटी सभ्यता का महत्व केवल इसके नगरों की विशालता या योजनाबद्धता तक सीमित नहीं है। इसकी विशेषता यह है कि इसने जीवन के लगभग सभी क्षेत्रों में—जैसे कृषि, व्यापार, कला, शिल्प, धर्म और सामाजिक व्यवस्था—में एक नया स्वरूप प्रस्तुत किया। यह सभ्यता मेसोपोटामिया और मिस्र जैसी समकालीन सभ्यताओं की बराबरी करती थी और कई मायनों में उनसे कहीं अधिक उन्नत थी।

इस सभ्यता का नाम हड़प्पा से इसलिए जुड़ा क्योंकि सर्वप्रथम 1921 ई. में पंजाब (अब पाकिस्तान) के हड़प्पा नामक स्थल पर इसके अवशेषों की खोज हुई। बाद में मोहनजोदड़ो, धौलावीरा, लोथल, कालीबंगा, राखीगढ़ी जैसे स्थलों की खोज ने इसे और भी व्यापक बनाया। आज के पाकिस्तान, गुजरात, राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र तक इसके अवशेष मिलते हैं।

सिंधु घाटी सभ्यता को विश्व की प्राचीनतम शहरी सभ्यताओं में गिना जाता है। यहाँ ग्रिड पैटर्न वाली सड़कें, सुव्यवस्थित जल निकासी प्रणाली, विशाल स्नानागार, अन्नागार, किलेबंदी, धातु व शिल्प उत्पादन, व्यापारिक नेटवर्क और लेखन प्रणाली जैसे अनेक प्रमाण मिलते हैं। इन विशेषताओं से यह स्पष्ट होता है कि यह सभ्यता केवल एक क्षेत्रीय संस्कृति न होकर, एक विशाल और संगठित सामाजिक–आर्थिक ढाँचा थी, जिसने आगे चलकर भारतीय इतिहास की नींव रखी।


हड़प्पा संस्कृति के चरण

हड़प्पा संस्कृति को चार प्रमुख चरणों में बाँटा गया है:

सीमा प्रमुख स्थल
उत्तर                          शोर्टुगई (अफगानिस्तान), मांडा (जम्मू–कश्मीर, भारत)
पश्चिम                          सुत्कागेन्डोर (पाकिस्तान–ईरान सीमा)
पूर्व                          आलमगीरपुर (उत्तर प्रदेश, भारत)
दक्षिण                          दैमाबाद (महाराष्ट्र, भारत)
 
हड़प्पा संस्कृति के चरण हड़प्पा संस्कृति को चार प्रमुख चरणों में बाँटा गया है:dailyprime247.in

भौगोलिक विस्तार

सिंधु घाटी सभ्यता का विस्तार बहुत व्यापक था।

  • उत्तर सीमा                                : शोर्टुगई (अफगानिस्तान), मांडा (जम्मू–कश्मीर, भारत)

  • पश्चिम सीमा                              : सुत्कागेन्डोर (पाकिस्तान–ईरान सीमा)

  • पूर्व सीमा                                  : आलमगीरपुर (उत्तर प्रदेश, भारत)

  • दक्षिण सीमा                              : दैमाबाद (महाराष्ट्र, भारत)

इस सभ्यता के मुख्य क्षेत्र आज के पाकिस्तान, गुजरात, राजस्थान और हरियाणा में स्थित थे।

स्थल

नदी/स्थान

प्रमुख विशेषताएँ

हड़प्पा (पंजाब, पाकिस्तान)

रावी

पहला खोजा गया स्थल; छह अन्न भंडार; पुरुष धड़ की प्रतिमा; लिंग–योनि प्रतीक; मातृदेवी और पासा

मोहनजोदड़ो (सिंध, पाकिस्तान)

सिंधु

सबसे बड़ा स्थल; विशाल स्नानागार; दाह संस्कार के बाद दफनाना; नृत्य करती नर्तकी की प्रतिमा; दाढ़ी वाला पुरुष; कांस्य बैल; योजनाबद्ध नगर (गढ़ + निचला नगर)

चन्हूदड़ो (सिंध, पाकिस्तान)

सिंधु

हस्तशिल्प उत्पादन केंद्र; मनका बनाना; धातु कार्य; मुहरें; ईंटों पर कुत्ते के पंजे की छाप; बैलगाड़ी का टेराकोटा मॉडल; कांस्य खिलौना गाड़ी

लोथल (गुजरात)

भोगवा + साबरमती

नौसैनिक व व्यापार केंद्र; गोदीवाड़ा और बंदरगाह; अन्नागार; चावल की भूसी; संयुक्त दफन; गढ़ ऊँचाई पर

धौलावीरा (गुजरात)

लूनी

यूनेस्को विश्व धरोहर; उन्नत जल निकासी; विशाल जल भंडार; मेगालिथिक निर्माण; साइनबोर्ड; तीन भागों में नगर

सुरकोटदा (गुजरात)

अंडाकार कब्रें; पात्र शवाधान

कालीबंगा (राजस्थान)

ईंट कारखाना; जते खेत; ऊँट की हड्डियाँ; अग्निवेदियाँ; बैल की प्रतिमा

बनावली (हरियाणा)

रंगोई

हड़प्पा के सभी चरण; अंडाकार बस्ती; जौ के दाने; लाजवर्त; अग्निवेदियाँ; अव्यवस्थित जल निकास

रोपड़ (पंजाब)

सतलुज

स्वतंत्रता के बाद उत्खनन; अंडाकार समाधि; कुत्ते को मानव के साथ दफनाया गया; ताँबे की कुल्हाड़ी

राखीगढ़ी (हरियाणा)

भारत का सबसे बड़ा हड़प्पा स्थल; तीनों चरण प्रदर्शित

रंगपुर (गुजरात)

मादर

हड़प्पा–पूर्व और परिपक्व चरण; पीले–भूरे बर्तन

आलमगीरपुर (उत्तर प्रदेश)

हिंडन

उत्तर–हड़प्पा संस्कृति; ताँबे का ब्लेड; कपड़े की छाप

दैमाबाद (महाराष्ट्र)

प्रवरा

कांस्य प्रतिमा (रथ, सारथी, बैल, हाथी, गैंडा)

कोटदीजी (सिंध, पाकिस्तान)

सिंधु

मिट्टी–पत्थर का किला; लाल–भूरे बर्तन; सींग वाले देवता; मछली के शल्क

अमरी (सिंध, पाकिस्तान)

सिंधु

हड़प्पा–पूर्व बस्ती; संक्रमणकालीन संस्कृति; गैंडे के अवशेष

सुत्कागेन्डोर (सिंध, पाकिस्तान)

दास्क

राख से भरे बर्तन; ताँबे की कुल्हाड़ी; मिट्टी की चूड़ियाँ; बंदरगाह; बेबीलोन से व्यापार के प्रमाण

पुरातात्त्विक विकास

  • 1826 ई. – हड़प्पा का सबसे पहला दौरा चार्ल्स मैसन ने किया।

  • 1853, 1856 और 1875 ई.अलेक्ज़ेंडर कनिंघम ने स्थल का दौरा किया।

  • 1875 ई. – हड़प्पाकालीन मुहरों पर अलेक्ज़ेंडर कनिंघम की रिपोर्ट प्रकाशित।

    (भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण – एएसआई के प्रथम सर्वेक्षक, 1861 ई.)

  • 1921 ई. – एम. एस. वत्स ने हड़प्पा में खुदाई शुरू की।

  • 1925 ई. – मोहनजोदड़ो में खुदाई शुरू हुई।

  • 1946 ई. – आर. ई. एम. व्हीलर ने हड़प्पा में खुदाई की।

  • 1955 ई. – एस. आर. राव ने लोथल में खुदाई शुरू की।

  • 1960 ई. – बी. बी. लाल और बी. के. थापर ने कालीबंगा में उत्खनन कराया।

  • 1990 ई. – आर. एस. बिष्ट ने धौलावीरा में खुदाई शुरू की।

सर जॉन मार्शल – एएसआई के महानिदेशक बने और हड़प्पा स्थलों पर अनुसंधान कार्य शुरू किया।
उन्होंने भारत में पुरातत्व के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।


राजनीतिक विशेषताएँ

  • केंद्रीकृत सत्ता ने समान संस्कृति के विकास में योगदान दिया।
    जैसे – मिट्टी के बर्तन, मुहरें, बाट, ईंटें, लिपि और श्रमिक व्यवस्था।

  • कुछ विद्वानों के अनुसार हड़प्पा सभ्यता में कोई एक शासक नहीं था, सभी को समान दर्जा प्राप्त था।

  • अन्य विद्वानों का मानना है कि कई शासक थे, जैसे – मोहनजोदड़ो का शासक अलग और हड़प्पा का शासक अलग।

  • सम्भवतः शासक व्यापारी वर्ग से थे, जैसे निचले मेसोपोटामिया के नगरों में होता था जहाँ पुरोहित–शासक नहीं होते थे।


नगर योजना और संरचनाएँ

हड़प्पा सभ्यता अपनी नगरीय योजना प्रणाली के लिए प्रसिद्ध थी।

प्रमुख नगर

हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, धौलावीरा, लोथल, सुरकोटदा, कालीबंगा, बनावली और राखीगढ़ी।

नगर विभाजन

  • निचला भाग (Lower Town):

    • यहाँ आम नागरिक रहते थे।

    • पेशेवर और दैनिक जीवन यापन यहीं होता था।

  • गढ़ / एक्रोपोलिस (Citadel):

    • यह भाग ऊँचाई पर बना होता था।

    • सामान्यतः पश्चिम दिशा में स्थित।

    • यहाँ सार्वजनिक भवन, अन्न भंडार और आवश्यक कार्यशालाएँ होती थीं।

नगर योजना और संरचनाएँ हड़प्पा सभ्यता अपनी नगरीय योजना प्रणाली ,ग्रिड प्रणाली,dailyprime217.in

निचला शहर

सिंधु घाटी सभ्यता के नगर नियोजन में ग्रिड पैटर्न का अनुपालन किया गया था, जिसमें सड़कें एक-दूसरे को समकोण पर काटती थीं। 

नगर नियोजन की प्रक्रिया में पहले सड़कों का निर्माण किया जाता था और फिर उनके किनारे घर बनाए जाते थे। सड़कों की चौड़ाई पर्याप्त थी, जिससे पूरा शहर आयताकार और वर्गाकार खंडों में विभाजित दिखाई देता था। निर्माण कार्य में पकी हुई ईंटों और पत्थरों का उपयोग किया गया था। 

घर सामान्यतः मिट्टी की ईंटों से बने होते थे, जबकि नालियाँ पक्की ईंटों से निर्मित थीं। ईंटों का आकार एक निश्चित अनुपात (1:2:4 – मोटाई: चौड़ाई: लंबाई) में था और पूरे नगर में इनका उपयोग समान रूप से किया जाता था। 

इसके विपरीत, मिस्र की समकालीन इमारतों के निर्माण में मुख्यतः सूखी ईंटों का प्रयोग होता था। हड़प्पावासी घरों में पक्की ईंटों से बने स्नानघर और नालियों की व्यवस्था करते थे। घरों का आकार भिन्न-भिन्न होता था; कई घरों में दो या दो से अधिक मंज़िलें तथा अनेक कमरे होते थे। 

अधिकांश घरों में एक केंद्रीय आँगन होता था, जिसके चारों ओर कमरे बने होते थे। यह आँगन आवासीय भवन का केंद्र था, जहाँ परिवार के सदस्य खाना पकाने और बुनाई जैसी गतिविधियाँ संपन्न करते थे। 

कालीबंगा में कई घरों में कुएँ पाए गए हैं, जो जल व्यवस्था की उन्नत स्थिति को दर्शाते हैं।

जल निकासी व्यवस्था

हड़प्पा नगरों की सबसे उल्लेखनीय विशेषता उनकी जल निकासी प्रणाली थी। प्रत्येक घर सड़क की नालियों से जुड़ा हुआ था। मुख्य नालियाँ पक्की ईंटों और गारे से निर्मित थीं और इन्हें ऊपर से कच्ची ईंटों या पत्थर की पट्टियों से ढका जाता था, जिन्हें सफाई के लिए आसानी से हटाया जा सकता था।

 घरेलू नालियाँ पहले एक हौज या गड्ढे में खाली की जाती थीं, जहाँ ठोस पदार्थ जम जाते थे, और इसके बाद गंदा पानी सड़क की नालियों में प्रवाहित होता था। अपशिष्ट जल की सफाई और निकासी के लिए एक लंबी जल निकास नाली की व्यवस्था की गई थी, जो उस समय की उच्च स्तरीय इंजीनियरिंग दक्षता का प्रमाण है।

गढ़ (ऊपरी नगर)

गढ़ का निर्माण मिट्टी और ईंटों की ऊँची भूमि पर किया गया था। इसे एक मज़बूत दीवार द्वारा निचले नगर से अलग किया गया था। गढ़ क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण आवासीय और सार्वजनिक संरचनाएँ थीं, जिन पर सम्भवतः शासक वर्ग का नियंत्रण रहता था। इन संरचनाओं में विशाल स्नानागार और अन्नागार विशेष रूप से उल्लेखनीय थे।

विशाल स्नानागार, जो मोहनजोदड़ो में स्थित है, हड़प्पा सभ्यता की सबसे प्रसिद्ध संरचनाओं में से एक है। यह किसी विशेष धार्मिक अनुष्ठानिक स्नान के लिए प्रयुक्त होता होगा। यह स्नानागार एक बड़े आयताकार टैंक के रूप में निर्मित था, जो चारों ओर से गलियारों से घिरा हुआ था। इसका फर्श पक्की ईंटों से बना था और इसे जलरोधी बनाने के लिए जिप्सम गारे का प्रयोग किया गया था। इसके बगल में वस्त्र बदलने के लिए कमरे भी बने हुए थे।

विशाल स्नानागार, जो मोहनजोदड़ो में स्थित है, हड़प्पा सभ्यता की सबसे प्रसिद्ध संरचनाओं में से एक है।

अन्नागार भी हड़प्पा सभ्यता की महत्त्वपूर्ण संरचनाएँ थीं। मोहनजोदड़ो का विशाल अन्नागार उस नगर की सबसे बड़ी इमारत थी। हड़प्पा के गढ़ क्षेत्र में छह अन्नागार पाए गए हैं। कालीबंगा में भी ईंटों के चबूतरे मिले हैं, जिन्हें अनाज भंडारण के लिए प्रयुक्त किया गया होगा। इन चबूतरों की दरारों में गेहूँ और जौ के दाने मिले हैं, जो इस तथ्य की पुष्टि करते हैं।

हड़प्पा सभ्यता का सबसे बड़ा स्नानागार

धार्मिक परंपराएँ

हड़प्पा एक धर्मनिरपेक्ष सभ्यता थी। हालाँकि यहाँ धार्मिक तत्व उपस्थित थे, परंतु वे प्रभावी रूप में विद्यमान नहीं थे । अब तक कोई मंदिर नहीं मिला है, और पूजा का अनुमान प्रतिमाओं तथा लघु मूर्तियों से लगाया जाता है । हड़प्पावासी पृथ्वी को उर्वरता की देवी के रूप में मानते थे। 

इसका प्रमाण टेराकोटा मूर्ति से मिलता है, जिसमें एक महिला की प्रतिमा से भ्रूण रूप में पौधा अंकुरित होता दिखाया गया है। एक मुहर पर एक पुरुष देवता को तीन सिरों और तीन सींगों के साथ योगासन में बैठे हुए दर्शाया गया है। यह देवता अपने सिंहासन के नीचे हाथियों, बाघों, गैंडों और भैंसों से घिरा हुआ है। 

इस मुहर को पारंपरिक रूप से पशुपति महादेव (आदि-शिव) की छवि के रूप में माना जाता है।

धार्मिक प्रथाओं में योनि पूजा, लिंग पूजा, पशु पूजा, अग्निवेदियों का उपयोग तथा वृक्ष पूजा (विशेषकर पीपल) शामिल थे। बड़ी संख्या में ताबीज मिले हैं, जिनका उपयोग संभवतः बुरी शक्तियों को दूर रखने के लिए किया जाता था।

हड़प्पा लिपि

हड़प्पा लिपि भारतीय उपमहाद्वीप की सबसे प्राचीन लिपि मानी जाती है। यह दाएँ से बाएँ लिखी जाती थी। अब तक यह लिपि अपठनीय है और इसका पश्चिम एशियाई लिपियों से कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं है। अधिकांश शिलालेख मुहरों पर अंकित पाए गए हैं और वे अत्यंत छोटे होते थे। हड़प्पावासियों ने मिस्र और मेसोपोटामिया के समकालीन लोगों की तरह लंबे शिलालेख नहीं लिखे। 

सबसे लंबा शिलालेख केवल छब्बीस चिह्नों का है। यह लिपि वर्णानुक्रमिक नहीं थी, बल्कि इसमें बड़ी संख्या में चित्रलेख (pictographs) प्रयुक्त हुए थे, जिनकी संख्या लगभग 250 से 400 के बीच थी। इस लिपि का उपयोग संपत्ति की रिकॉर्डिंग और लेखा–जोखा रखने में किया जाता था।

हड़प्पा सभ्यता की लिपि , बाएं से दाएं और दाएं से बाएं

भार और मापन

हड़प्पावासी वाणिज्यिक लेन–देन में संलग्न थे, इसलिए उन्हें मानकीकृत माप प्रणाली की आवश्यकता थी। उन्होंने चकमक पत्थर से बने घनाकार बाटों का प्रयोग किया, जिन पर कोई विशेष चिह्न अंकित नहीं होते थे। इस प्रकार उनके पास व्यापार और वस्तु विनिमय के लिए एक निश्चित और समान प्रणाली उपलब्ध थी।

भार और मापन

हड़प्पा सभ्यता में भार और मापन की व्यवस्था अत्यंत संगठित थी। वजन की इकाइयाँ 16 के गुणज पर आधारित थीं, जैसे– 16, 64, 160, 320 और 640। यह परंपरा भारत में लंबे समय तक जारी रही। उदाहरण के लिए, एक रुपए के मूल्य को 16 आने में विभाजित करने की प्रथा इसी की देन है। 

हड़प्पावासियों ने बाइनरी संख्या प्रणाली (1, 2, 4, 8, 16, 32 आदि) का भी उपयोग किया। मापने के लिए कांसे और अन्य धातुओं की छड़ियाँ प्रयोग में लाई जाती थीं। इनमें से एक कांसे की बनी छड़ी पर स्पष्ट माप अंकित मिले हैं। इसके अतिरिक्त एक मापने का पैमाना भी मिला है, जिसमें एक इंच लगभग 1.75 सेंटीमीटर के बराबर था।


सामाजिक विशेषताएँ

हड़प्पा समाज मुख्यतः शहरी था, जिसमें मध्यम वर्ग का वर्चस्व था। नगरों के निचले हिस्सों में तीन प्रमुख वर्ग रहते थे— शासक, धनी व्यापारी और गरीब मजदूर।

शवाधान पद्धति के साक्ष्य भी मिले हैं। कालीबंगा में अग्निवेदियों के अवशेष पाए गए हैं, जहाँ मृतकों को दफनाया जाता था। दफनाने का कार्य सुव्यवस्थित ढंग से किया जाता था और कुछ स्थानों पर दाह संस्कार के प्रमाण भी मिले हैं। 

हड़प्पाई कब्रगाहों में मिट्टी के बर्तन, आभूषण, ताँबे के दर्पण और मोती पाए गए, जो पुनर्जन्म में विश्वास का संकेत देते हैं। आभूषण पुरुषों और महिलाओं दोनों की कब्रों में मिले हैं। आमतौर पर मृतकों को गड्ढों में लिटाकर दफनाया जाता था। कभी–कभी गड्ढों को ईंटों से पंक्तिबद्ध भी किया जाता था।


जीवन शैली

हड़प्पावासी पुरुष और महिलाएँ धोती तथा शॉल जैसी विभिन्न प्रकार की पोशाकें पहनते थे। सौंदर्य प्रसाधन का प्रयोग व्यापक था। सिनेबार को सौंदर्य प्रसाधन के रूप में प्रयोग किया जाता था। इसके अलावा फेस पेंट, लिपस्टिक और कोलिरियम (आईलाइनर) भी उन्हें ज्ञात थे।


कलाकृतियाँ

हड़प्पा और मोहनजोदड़ो जैसी बड़ी बस्तियों में मूल्यवान सामग्रियों से बनी वस्तुएँ अधिक मात्रा में पाई गईं, जबकि छोटी बस्तियों में इनका अभाव रहा। 

चमकदार चीनी मिट्टी के छोटे बर्तन, जिन्हें संभवतः इत्र की बोतलों के रूप में प्रयोग किया जाता था, अधिकांशतः मोहनजोदड़ो और हड़प्पा में पाए गए हैं। हड़प्पा स्थलों से प्राप्त सभी स्वर्ण आभूषण अन्नागारों से बरामद हुए हैं।

हड़प्पा सभ्यता की सामाजिक स्थिति, कलाकृति,बर्तन शिल्पकार इत्यादि।

कृषि

हड़प्पा सभ्यता में कृषि आजीविका का एक प्रमुख साधन थी। कृषि अधिशेष विकास कार्यों का आधार था।

  • हल के टेराकोटा मॉडल चोलिस्तान और बनावली से मिले हैं, जो कृषि प्रथाओं का संकेत देते हैं।

  • जुते हुए खेत कालीबंगा में मिले हैं, जिनमें समकोण पर दो खाँचों का निर्माण था, यह दोहरी फसल प्रणाली का संकेत है।

  • चावल की खेती का प्रमाण लोथल (1800 ईसा पूर्व) और रंगपुर (गुजरात) से मिला है।

  • बैल का चित्रण मुहरों और टेराकोटा प्रतिमाओं में मिलता है, जो हल चलाने में उनके प्रयोग को दर्शाता है।

हड़प्पा सभ्यता का कृषि पद्धति और कृषि के प्रकार

मुख्य फसलों में गेहूँ, जौ, मसूर, चना, तिल, सरसों और बाजरा शामिल थे। हल लकड़ी के बने होते थे जिन्हें बैल खींचते थे। पत्थर की हँसिया का उपयोग भी किया जाता था। हड़प्पावासी सिंचाई के लिए नहरों और कुओं दोनों का उपयोग करते थे।

मेसोपोटामिया की तरह ही यहाँ भी अनाज किसानों से कर के रूप में एकत्र किया जाता था और मजदूरी भुगतान तथा आपात स्थिति के लिए अन्नागारों में संग्रहीत किया जाता था।


पशुपालन

हड़प्पावासी पशुपालन से भी परिचित थे। उनके मवेशियों को ज़ेबू कहा जाता था। यह कूबड़ वाली बड़ी नस्ल थी, जिसका उल्लेख मुहरों पर मिलता है। उन्होंने बैल, भैंस, बकरी, भेड़, मुर्गी, सूअर, कुत्ता, बिल्ली, गधा और ऊँट को पालतू बनाया। विशेष रूप से कूबड़ वाले बैल पसंद किए जाते थे।

उनके आहार में मछली और पक्षी भी शामिल थे। सूअर, हिरण और घड़ियाल के अवशेष मिले हैं। घोड़े की जानकारी उन्हें नहीं थी, परंतु हाथी और गैंडे के साक्ष्य अमरी से प्राप्त हुए हैं। शेर के विषय में उन्हें जानकारी नहीं थी। मेसोपोटामिया के एक मिथक में हाजा पक्षी का उल्लेख है, जिसे कुछ विद्वान मोर मानते हैं।

हड़प्पावासियों को परिचित और अपरिचित पशु:

  • परिचित (पालतू): ज़ेबू, बैल, भैंस, बकरी, भेड़, सूअर, मुर्गी, कुत्ता, बिल्ली, गधा, ऊँट

  • जंगली परिचित: सूअर, हिरण, घड़ियाल, हाथी, गैंडा (अमरी से)

  • अपरिचित: घोड़ा, शेर

  • पक्षी: मोर (संभवतः मेसोपोटामिया मिथक का हाजा पक्षी)

व्यापारिक साक्ष्य

हड़प्पा सभ्यता के व्यापारिक संबंध अत्यंत विस्तृत थे। पुरातात्त्विक साक्ष्यों से यह स्पष्ट होता है कि हड़प्पावासी केवल आंतरिक व्यापार तक ही सीमित नहीं थे, बल्कि उनका बाहरी देशों से भी गहरा संपर्क था।

सबसे महत्वपूर्ण साक्ष्य मेसोपोटामिया, ओमान, बहरीन, इराक और ईरान से प्राप्त मुहरों और कलाकृतियों के रूप में मिलता है। मेसोपोटामिया स्थलों पर हड़प्पाकालीन मुहरों का प्राप्त होना इस बात का प्रमाण है कि हड़प्पावासियों और पश्चिम एशियाई देशों के बीच सक्रिय व्यापारिक संबंध थे।

सांस्कृतिक दृष्टि से भी हड़प्पावासियों ने मेसोपोटामिया की शहरी आबादी द्वारा प्रयुक्त सौंदर्य प्रसाधनों की नकल की। यह न केवल आर्थिक, बल्कि सांस्कृतिक आदान–प्रदान को भी दर्शाता है।

पाठ्य साक्ष्य भी इस संबंध की पुष्टि करते हैं। मेसोपोटामिया की फन्नी–लिपि में हड़प्पावासियों के साथ व्यापारिक संबंधों का उल्लेख मिलता है। इसमें सिंधु क्षेत्र को मेलुहा” नाम से संबोधित किया गया है।

व्यापारिक मार्ग में दिलमन (बहरीन) और माकन (मकरान तट) जैसे मध्यवर्ती व्यापारिक स्टेशन भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे। ये स्थल मेसोपोटामिया और मेलुहा (हड़प्पा) के बीच व्यापार को सुगम बनाते थे।

व्यापारिक गतिविधियों के वास्तुकला संबंधी साक्ष्य लोथल (गुजरात) में प्राप्त होते हैं। यहाँ गोदीबाड़ा (Dockyard) की खोज हुई है, जो हड़प्पावासियों की उन्नत समुद्री व्यापारिक क्षमताओं को दर्शाती है। इससे यह सिद्ध होता है कि वे समुद्री मार्गों से भी व्यापार करते थे और विदेशी सभ्यताओं से वस्तुओं का आदान–प्रदान करते थे।

परिवहन और व्यापार

हड़प्पावासी परिवहन के लिए बैलगाड़ियों और नावों का उपयोग करते थे। उनकी गाड़ियाँ ठोस पहियों वाली थीं और आधुनिक एक्का गाड़ियों के समान थीं। धातु मुद्रा का प्रचलन हड़प्पा काल में नहीं था, और व्यापार वस्तु विनिमय प्रणाली पर आधारित था।

आयात के रूप में वे ईरान और अफगानिस्तान से खनिज, भारत के विभिन्न भागों से सीसा और ताँबा, चीन से हरिताश्म पत्थर तथा हिमालय और कश्मीर क्षेत्र से देवदार की लकड़ी लाते थे। सोना अफगानिस्तान, ईरान और दक्षिण भारत के कोलार क्षेत्र से प्राप्त होता था। कोलतार बलूचिस्तान और मेसोपोटामिया से आयात किया जाता था। ताँबा खेतड़ी (राजस्थान) और ओमान से, टिन अफगानिस्तान और ईरान से, सीसा दक्षिण भारत से, लाजवर्द (लापीस लाजुली) शोर्टुगई (अफगानिस्तान) से और फिरोज़ा ईरान से आयात किया जाता था।

निर्यात के रूप में कृषि उत्पाद, कपास के वस्त्र, टेराकोटा की मूर्तियाँ, चन्हूदड़ो से मोती, लोथल से शंख, हाथीदाँत की वस्तुएँ, माणिक (कार्नेलियन), लाजवर्द, ताँबा, सोना और अनेक प्रकार की लकड़ियाँ भेजी जाती थीं।


कला और शिल्प

हड़प्पावासी शिल्प उत्पादन में अत्यंत कुशल थे और इसके लिए वे विविध स्रोतों से सामग्री प्राप्त करते थे। लोथल से बोल्ड, नागेश्वर और बालाकोट से शंख, दक्षिण राजस्थान से सेलखड़ी, शोर्टुगई से लाजवर्द तथा राजस्थान और ओमान से ताँबा मिलता था।

वे धातु ढलाई, नाव बनाना, पत्थर पर नक्काशी, मिट्टी के बर्तन बनाना तथा टेराकोटा चित्र निर्माण में निपुण थे। पत्थर, कांस्य और टेराकोटा की अनेक मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। हड़प्पा से लाल बलुआ पत्थर में बनी पुरुष धड़ की प्रतिमा और मोहनजोदड़ो से दाढ़ी वाले पुरुष की मूर्ति प्रसिद्ध हैं। टेराकोटा की मूर्तियाँ अपेक्षाकृत अनगढ़ हैं, किंतु गुजरात और कालीबंगा की मूर्तियों में यथार्थता दिखाई देती है। हड़प्पा से मातृदेवी की टेराकोटा मूर्ति मिली है।

हड़प्पा सभ्यता के समय की कला कृतियां, पशुपति और एक टेराकोटा से बनी स्त्री की मूर्ति

अधिकांश मुहरें सेलखड़ी से बनी थीं। कभी-कभी वे गोमेद, हाथीदाँत, चकमक पत्थर, ताँबा, चमकदार चीनी मिट्टी और टेराकोटा से भी निर्मित होती थीं। इन मुहरों पर पशुपति महादेव, एक सींग वाला बैल, गैंडा, बाघ, हाथी, जंगली साँड, बकरी और भैंस जैसी आकृतियाँ उत्कीर्ण थीं। मुहरों का उपयोग संभवतः सामग्रियों पर स्वामित्व चिह्न के रूप में किया जाता था।

हड़प्पावासी मिट्टी के बर्तन बनाने में भी दक्ष थे। अधिकांश बर्तन चाक से बने थे, जबकि हाथ से बने बर्तनों की संख्या बहुत कम थी। लाल मिट्टी के बने साधारण बर्तनों के अतिरिक्त, चित्रित बर्तन भी मिलते हैं। ये बर्तन अच्छी तरह से पकाए जाते थे और उन पर गहरे लाल रंग की पृष्ठभूमि पर काले रंग से आकृतियाँ बनाई जाती थीं। इनमें पीपल के पत्ते, मछली की आकृति, प्रतिच्छेदित वृत्त, आड़ी-तिरछी रेखाएँ, क्षैतिज पट्टियाँ, पुष्प और जीव-जंतु की आकृतियाँ शामिल थीं।


वस्त्र और आभूषण

हड़प्पावासी कपास और रेशम दोनों से परिचित थे। एक प्रसिद्ध मूर्ति में एक व्यक्ति, जिसे पुजारी के रूप में पहचाना गया है, फूलों से सजाई गई शॉल जैसा परिधान पहने हुए है। कपास और ऊन की कताई प्रचलित थी। आभूषण माणिक, स्फटिक, क्रिस्टल, सेलखड़ी, ताँबा, कांसा, सोना, शंख, चमकदार चीनी मिट्टी, टेराकोटा और जली हुई मिट्टी से बनाए जाते थे।

हड़प्पा काल की वस्त्र और आभूषण जैसे , गले का हार, चूड़ी इत्यादि

कार्नेलियन (यमनी पत्थर) का उत्पादन विशेष तकनीक से किया जाता था, जिसमें पीले रंग के कच्चे माल (कैलेसिडोनी) और मोतियों को जलाकर चरणबद्ध रूप से तैयार किया जाता था। मेसोपोटामिया स्थलों पर इन कलाकृतियों का मिलना इस बात का प्रमाण है कि हड़प्पावासी इन वस्तुओं का निर्यात करते थे। हरियाणा के फरमाणा कब्रिस्तान से भी यह प्रमाणित होता है कि शवों को आभूषणों के साथ दफनाया जाता था।


धातु, औजार और हथियार

हड़प्पा सभ्यता कांस्य युगीन सभ्यता थी। हड़प्पावासी ताँबे से कांस्य उपकरण बनाना जानते थे। टिन को ताँबे के साथ मिलाकर कांस्य तैयार किया जाता था। वे चर्ट पत्थर से बने ब्लेड, ताँबे के औजार तथा हाथी की हड्डी और दाँत से बने उपकरण प्रयोग करते थे। छेनी, सुई, मछली पकड़ने के काँटे, चाकू, तराजू, दर्पण और सरुमा की छड़ें ताँबे से बनाई जाती थीं।

हड़प्पा सभ्यता में बन रहे छोटे एवं बड़े हथियार

रोहरी (पाकिस्तान) से प्राप्त चर्ट पत्थर से बने ब्लेड व्यापक रूप से उपयोग किए जाते थे। उनके हथियारों में तीर की नोक, भाले की नोक, कुल्हाड़ी और गदा शामिल थे। वे लॉस्ट वैक्स तकनीक (lost-wax technique) का प्रयोग कर कांस्य ढलाई करते थे। इसी तकनीक से मोहनजोदड़ो की प्रसिद्ध नृत्य करती हुई नर्तकी की प्रतिमा और कालीबंगा से बैल की प्रतिमा बनाई गई।

यह उल्लेखनीय है कि हड़प्पावासियों को लोहे का ज्ञान नहीं था

क्षेत्र सांस्कृतिक समूह प्रथाएँ और गतिविधियाँ
दक्षिणी उपमहाद्वीप (केरल और श्रीलंका) शिकारी और संग्राहक मुख्य रूप से शिकार और संग्रह
कर्नाटक और आंध्र प्रदेश नवपाषाण संस्कृतियाँ पशुपालन और हल-आधारित कृषि
दक्कन और पश्चिमी भारत ताम्रपाषाण संस्कृतियाँ प्रारंभिक कृषि, धातुकर्म और ग्रामीण बस्तियाँ
उत्तरी भारत (कश्मीर, गंगा घाटी आदि) नवपाषाण संस्कृतियाँ कृषि और पशुपालन
मध्य और पूर्वी भारत नवपाषाण संस्कृतियाँ प्रारंभिक कृषि और पशुपालन गतिविधियाँ
प्रमुख कारण विवरण मुख्य बिंदु
जलवायु परिवर्तन लगातार सूखा, नदियों और जल स्रोतों का सूखना कृषि स्थिरता में कमी
बाढ़ और नदी परिवर्तन नदियों के प्रवाह में परिवर्तन से बस्तियों का विकास बाधित, बार-बार बाढ़ सिंधु और घग्घर-हकरा नदी प्रणालियाँ प्रभावित
मृदा उर्वरता में कमी मरुस्थल के विस्तार से कृषि भूमि की उर्वरता कम हुई फसल उत्पादन घटा, आजीविका प्रभावित
व्यापार में गिरावट मेसोपोटामिया और अन्य क्षेत्रों से व्यापारिक संबंध कमजोर हुए आर्थिक समृद्धि में कमी
आर्य आक्रमण आर्यों का प्रस्तावित आक्रमण (विवादास्पद) पतन का संभावित कारण
भूकंप विवर्तनिक गतिविधियों से नदियों का प्रवाह बदला और नगर नष्ट हुए संरचनात्मक खंडहर संभावित साक्ष्य
आंतरिक संघर्ष सामाजिक-राजनीतिक पतन और संगठन की कमी एकीकृत नेतृत्व का अभाव
संसाधनों का अधिक उपयोग वनों की अंधाधुंध कटाई और प्राकृतिक संसाधनों की कमी पर्यावरणीय क्षरण और पतन में तेजी